Poem

चाँद और मैं…

चाँद और मैं…

रात तो चाँदनी में डूबी थी
उर सागर किनारे कुछ बात ही ऐसी थी
तारे जो टिमटिमा रहे थे
मानो मुझसे अकेले में कच कह रहे थे

उस अनंत भरमाँड में ऐसा क्या दिखा
की मन ख़ुद के होने का मतलब धूदने लगा
जिस धूल से बने है
उसी धूल में मिलेंगे

समय काल का चक्र भी अजीब ही है
जब लगा की जाने का वक़्त आया है
तभी जीना फिर से सुरु करने का जोश आया है
डर भी लगा, कितना कुछ बदल गया है

ख़ुद की तलाश में
एक तक होकर देख रही थी आँखें
आशमान की और
सुनाई कहाँ दे रहा था और कोई शोर

तूफ़ान तो अंदर था
बाहर के सन्नाटे को चीरता हुआ
आख़िर दिमाग़ का कहा ना मान कर
चला था अपने ही धूँ में

चाँद तो वही था
जो बर्शो पहले दिखा करता था
बातें भी तो उसे पता थी सारी
मेरे मन के हर राज की तिज़ोरी

चाँद तारे सबने है तो सुने
जो कहा और जो नहीं भी कहा
भूले मन के बात पुराने
अक्सर ख़ामोशी में साथ मिला

मेरी बातें आज काल होती नहीं है उस चाँद से
बस दूर से ही ताकने का नाता रह गया है
ख़ुशी है की चाँदनी अब भी आती है
शायद मझे परखती है मेरे ही ग़ुरूर से